आत्महत्या और समाज
समझाना आसान है , संभलना बहुत मुश्किल। हर आत्महत्या के बाद सुनते है की किसी को दिक्कत हो तो शेयर करना चाहिए पर इंसान शेयर करे तो किससे। यहाँ हरी राम नाई ज़्यादा है और सुनने वाले कम। और समाज , समाज को कंधा देना आता है पर सिर्फ़ लाश को। ज़िंदा लोग समाज को अपने अस्तित्व के लिए घातक लगते है तो अपने व्यवहार , विचार , रीति , नीति इत्यादि से ऐसे लोगों को तोड़ कर समाज चलती फिरती ज़िंदा लाशें बनने पर मजबूर कर देता है। और फिर ये ज़िंदा लाशें zombies के जैसे आगे वाली पौध को ऐसे ही बंजर और पंगु कैसे रखा जाए उस पर ही ध्यान केंद्रित रखती है। दरअसल , हम आर्थिक रूप से अमेरिका हो जाना चाहते है लेकिन संसाधन भारत के ही है हमारे पास और सामाजिक रूप से अफ़्रीका की किसी आदिवासी बस्ती वाले रीति रिवाज लेके ढो रहे है और सांस्कृतिक रूप से हमे यूरोप जैसा खुलापन चाहिए जिनमे कहीं भी तारतम्यता नहीं है। दिक्कत ये है कि जहाँ भी इनमे से एक पहिया डगमगाया , सामाजिक पतन अनिवार्य है। कोई भी इंसान इनमें से किसी एक के कमजोर होने पर तो संभल सकता है पर जैसे ही समस्याओं की कॉकटेल बनती...